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मैथिली साहित्यक गौरवमयी इतिहास के पन्ना के बढावैत हम अपन किछु प्रसिद्ध रचना लऽ कऽ प्रस्तुत छी, जेकरा हम अखन धरि विद्यापति समारोह के माध्यम से संबोधित करय छलहुँ। पुनः आयि-काल्हि के इंटरनेट युग के साहित्य प्रेमी ( विशेषतः मैथिल) के मनोरंजनक लेल अपन कविता लऽ के प्रस्तुत छी। आशा अछि जे अहाँ सभ के ई हमर प्रयास नीक लागत।

Thursday, December 28, 2006

खूब लुटै जो

लुटै जो, खूब लुटै जो,
देशक खजाना हाथ लागल छौ,
फुकै जो, खूब फुकै जो।

सत्य अहिंसाक एहि धरती पर,
रत्ती भर नहि लेश बचल छौ।
उड़ा दे ओकरो बम मारिकऽ,
इतिहासक जे अवशेष बचल छौ।
अपनहि घर में आगि फुकि कऽ,
तपै जो, खूब तपै जो।

बेशर्मी के हदौ होय छै,
तेकरा सभटा उठा गेलैं,
पशु के संगहि-संगहि सबटा,
दाना-चारा पचा गेलैं,
कुरसी पर सँ ठाढ भऽ के,
मुतै जो, खूब मुतै जो।

दुनियाँ चलि जाय भांड़ में चाहे,
गद्दी तऽ हथिऔने छी।
बड़का-बड़का हस्ती के हम,
चुटकी में सठिऔने छी।
भारत माँ के नग्न देखि के,
हँसै जो, खूब हँसै जो।

मोन तऽ होय अछि, चानि पर तोरा,
दुइ सौ-चारि सौ खापड़ि फोड़ितौं।
गदहा पर बैसाय तोरा हम,
छौंकी उपर से खूब कऽ तोरितौं।
थूकम-फझति कऽ के एकरा,
पिटै जो, खूब पिटै जो।

- (१ मई १९९६) इंद्र कान्त लाल

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